इद्दन जब पहली बार लोहे के तसले को अपनी बगल में दबाकर ‘कमाने’ निकली तो मोहम्मदअफ़ज़ल खां के घर के भीतर बनी खुड्डी में जाकर वह क्या देखती है कि वहां पीले-पीले गू के दलदल में कुछ कीड़े कुलबुला रहे हैं. नमरूदी कीड़े !…… असलम को एक चीख सुनाई पड़ी : ‘उई अल्लाह! सांप! असलम ने पूछा कहाँ है सांप ? इद्दन ने खुड्डी की ओर इशारा करते हुए कहा “हुआ ! खुड्डी में ! एक नहीं, दुइदुइ साँप. साँप भी नहीं, संपोले . साँप के बच्चे. रंग एक दम सुपेद… असलमखुड्डी में गया वहां भयंकर बदबू थी. उसने अपनी लुंगी उठा कर उसके एक कोने से नाक को दबाया फिर वह डरता हुआ-सा गौर से देखने लगा. खुड्डी में कोई खिड़की नहीं थी, मगर खपरेल के टूटे हुए हिस्से से सूरज की रौशनी अंदर आ रही थी. उसी रौशनी में असलम ने देखा कि खुड्डी में रखी दो ईटों के बीच में ढेर सारा पख़ाना पड़ा हुआ था और सफ़ेद रंग के दो लम्बे-लम्बे कीड़े उसमे कुलबुला रहे थे. (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
उपरोक्त उद्धरण अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास ‘कुठांव’ का है जिसे पढ़ते हुए आपने जरूर अपनी नाक दबा ली होगी। यह उपन्यास हलालखोर जाति की सामाजिक स्थिति की मार्मिकता को प्रस्तुत करता है। इस लेख में हम इसी हलालखोर जाति की उपत्ति और उनकी सामाजिक स्थिति को समझने की कोशिश करेंगे और यह भी समझने की कोशिश करेंगे कि सामाजिक न्याय के योद्धाओं ने और अशराफ सियासत ने इनको इस अमानवीय स्थिति से निकालने का कोई प्रयत्न क्यों नहीं किया?
कौन हैं हलालखोर ?
‘हलालखोर’ यानी हलाल का खाने वाला, यह सिर्फ एक अलंकार नहीं है बल्कि मुस्लिम समाज में मौजूद एक जाति का नाम है। जिनका पेशा नालों, सड़कों की सफाई करना मल-मूत्र की सफाई करना, बाजा बजाना, सूप बनाना है।
हलालखोर जाति के अधिकतर व्यक्ति मुस्लिम समाज के सुन्नी संप्रदाय के मानने वाले हैं। यह लोग अपनी मेहनत द्वारा कमाई गई रोटी के कारण हलालखोर कहलाए होंगे तो वहीं कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि धर्म परिवर्तन के बाद जब इस जाति ने सूअर का गोश्त खाना छोड़ दिया तो इस जाति को हलालखोर के नाम से जाना जाने लगा। (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
मुस्लिम समाज में एक दूसरी जाति भी मुस्लिम स्वीपर का काम करती है इस जाति का नाम है ‘लालबेगी’। बताया जाता है कि हलालखोर जाति के भीतर के विभाजन से ही इस जाति की उत्पत्ति हुई हालाँकि इस विभाजन के कारणों की कोई खास जानकारी हमारे पास नहीं है।
दरअसल जैसा कि Joel Lee लिखते हैं कि हलालखोर जाति उस बड़े ग्रुप का एक भाग था जो सफाई के काम में लिप्त थी । जैसे लालबेगी मुसलमान झाड़ू देने वाली स्वीपर लोगों का एक ऐसा वर्ग है जो उत्तरी भारत से आते हैं। इनमें से कुछ सिपाही रेजिमेंट से जुड़े लोग हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो काम की तलाश में भटकते रहते हैं।
लालबेगी झाड़ू देने वाले नौकरों के रूप में यूरोपीय परिवारों के यहां काम किया करते थे अन्य नौकर उन्हें ‘जमादार’ कहते थे। अबुल फ़ज़ल द्वारा लिखित ‘आईने अकबरी’ में पहली बार ‘खाकरुब’ (गंदगी/धूल साफ करने वाले) के रूप में एक जाति का ज़िक्र आया है। (Joel Lee)
डॉ अयुबराईन लिखते हैं कि मुगलकाल में अकबर महान के शासनकाल में भिन्न-भिन्न तरह के काम करने वाले मुस्लिम समुदाय के कई वर्गों को जातीय संबोधन से पुकारने का चलन शुरू हुआ। उसी काल में लोगों के पैखाना(शौच) को साफ करने का काम करने वाले वर्ग को हलालखोर नाम दिया गया। (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
बाबा साहब अंबेडकर अपनी किताब “अछूत: वे कौन थे और वे अछूत क्यों बने” में डॉ अंबेडकर अछूत जातियों की एक सूची देते हैं, जिसमें हलालखोर जाति भी शामिल है। उस वक़्त तक अछूत जातियाँ किसी धर्म विशेष से जोड़ कर नहीं देखी जाती थी।
1950 के राष्टपति अध्यादेश के बाद मुस्लिम और ईसाई दलितों को अनुसूचित जाति से बाहर कर दिया गया। आज भी मुस्लिम समुदाय में हलालख़ोर जाति को अरज़ाल जाति में गिना जाता है। अरज़ल शब्द का संबंध ‘अपमान’ से होता है और अरज़ल जाति को भनर, हलालखोर, हेला,हिजरा, कस्बी, लालबेगी, मौग्टा, मेहतर आदि उपजातियों में बांटा जाता है। उत्तर भारत में यह जाति अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में आती है।
वंशावली की खोज
मुस्लिम समाज में मौजूद पसमांदा जातियां सम्मान पाने के लिए अपना संबंध अरब समाज से जोड़ती आई हैं। इन्होंने अपनी जाति का नाम बदल कर अपना संबंध अरब समाज से जोड़ने की कोशिश इस आशा से की कि इनकी जाति को सम्मान मिल सके पर ऐसा वास्तव में हुआ नहीं क्योंकि इनके पास सैयदों की तरह कोई ‘शजरा'(वंश वृक्ष) नहीं था। जैसे बुनकरों ने अंसारी, हज्जामों ने सलमानी, धुनियों ने मंसूरी, कसाइयों ने कुरैशी, धोबी ने हवारी, मनिहारों ने सिद्दीकी, भठियारा ने फ़ारुकी, गोरकन ने शाह, पमारिया ने अब्बासी आदि। इस ‘अरबीकरण’ अशराफिकरण का असर हमें हलालखोर जाति में भी देखने को मिलता है।
मौखिक परंपरा में ऐसी कई कहानियाँ सुनने को मिलती हैं जिससे इस जाति का सम्बन्ध सीधे मुहम्मद (स० अ० व०) से जुड़ता है। जैसे एक कहानी यह बताई जाती है कि जब नबी की तबीयत खराब हुई और उन्हें उल्टी और दस्त लग गए तब उनकी देखभाल करने के लिए कोई भी आगे नहीं आया ऐसे में एक सहाबी उनकी देखभाल करने के लिए आगे आया और मुहम्मद (स० अ० व०) की उल्टी और दस्त को साफ़ किया। (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
मुहम्मद (स० अ० व०) ने उन्हें शेख हलालखोर का टाइटल दिया। कश्मीर में आज भी जिन व्यक्ति के आगे शेख लगता है वह हलालखोर होते हैं जैसे इश्तियाक्अहमद शेख और जिनके पीछे शेख लगा होता है वह अशराफ होते हैं जैसे शेख अब्दुल्लाह, उमर अब्दुल्लाह।
एक दूसरी कहानी मिलती है जिसमें बताया जाता है कि मुहम्मद (स० अ० व०) की बीवियों के क्वार्टर की सफाई के लिए किसी की जरूरत थी ऐसे में हजरत बिलाल(र०अ०) ने यह जिम्मेदारी उठाई।
इसी कारण कुछ हलालखोर अपने नाम के साथ ‘बिलाली’ भी लगाते हैं। ये सारी कहानियाँहलालखोर जाति के सम्मान को बनाए रखने के लिए जरूरी थी। साथ ही इन कहानियों के माध्यम से इस काम के महत्व की पुष्टि भी मुहम्मद (स० अ० व०) से कराई जाती है। (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
अब हम ‘हलालखोर’ जाति की वंशावली की खोज की एक अलग मौखिक परंपरा को सुनते हैं। जिसका सम्बन्ध मुहम्मद (स० अ० व०) के हलालखोर से अलग है। इंजीनियर बशीर ए. अलहाज ने एक किताब लिखी है जिसका नाम है ‘हरूफी नामा’ इसमें वह लिखते हैं कि ईरान के फ़ज़ल उल्लाहलालख़ोर (1340-1348 ई) ने एक नया मज़हब चलाया।
इस मज़हब का नाम ‘हरूफिया’ रखा गया। इसके मानने वालों में पेशेवर, हुनरमंद कारीगर यानी अहले-हेरफ ज़्यादा थे। तैमूरलंग के बेटे मीरान शाह ने फ़ज़ल उल्लाहलालख़ोर को ईशनिंदा के आरोप में कत्ल करा दिया। फ़ज़ल उल्लाहलालख़ोर की मौत के बाद उसके मुरीद दूसरे देशों में चले गए तो बाकी बचे अनुयायियों को सबक देने के मकसद से तैमूरलंग और उसके बेटे मीरान शाह ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और साईस ( मीर-आखोर, अस्तबल का सरदार) का पेशा अख्तियार करने पर मजबूर किया।
तैमूरलंग ने जब भारत पर हमला किया तो अपने साथ इंची अहलेहरूफ को साथ लाया। छावनी में इनका काम घोड़ों की देखभाल के साथ खाकरूबी(मल-मूत्र साफ़ करने का काम) का भी काम करना पड़ा। यहाँ लेखक बताते हैं कि अस्तबल में दो प्रकार के सेवक थे।
पहला जेलूदार(जमादार) जो अस्तबल का सरदार हुआ करता था और दूसरा फरार्स यानी खाकरुब, भिश्ती (इसमें अफ्रीकी गुलाम हुआ करते थे), जेलूदार(जमादार) को भी अफ्रीकी गुलामों के साथ मिल कर खाकरुब, भिश्ती का काम करना पड़ा, तैमूरलंग जब भारत से वापस लौटा तो बड़ी तादाद में हुनरमंद कारीगरों को अपने साथ ले गया। ऐसा उसने इसलिए किया क्योंकि फ़ज़ल उल्लाहलालख़ोर के अनुयायियों को उसने उनके पुश्तैनी कामों से हटाकर दूसरे काम में लगा दिया था।
इस तरह उसके पास काबिल कारीगरों की कमी हो गई थी और उनकी कमी को दूर करने के लिए भारत से इन कारीगरों को ले जाया गया और फ़ज़ल उल्लाहलालख़ोर के अनुयायियों को भारत में ही छोड़ दिया गया। (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
इन लोगों को इनके पीर फ़ज़ल उल्लाहलालख़ोर से जोड़कर हलालखोर बोला जाता है। लगातार अमानवीय स्थिति में रहने के कारण,यह कौम एक नशीली पत्ती जिसे उर्दू में ‘भंग’ कहते हैं (जिसका अर्थ होता है बर्बाद होना)का प्रयोग करने लगी। यह कौम ‘भंग’ की इस कदर आदि हो गई की इनका एक नाम भंगी भी रख दिया गया। इस तरह इस कहानी में ये बताया गया है कि हलालखोर अपने दीन इस्लाम से भटक गए थे जिस वजह से वह प्रताड़ित हुए।
हलालखोर समाज की सामाजिक स्थिति
मुस्लिम समाज में जाति व्यवस्था के साथ छुआछूत भी मौजूद है। इस विषय पर कोई बात करने को तैयार नहीं है छुआछूत इस समुदाय का सबसे ज़्यादा छुपाया गया रहस्य है. प्रशांत के त्रिवेदी, श्रीनिवास गोली, फ़ाहिमुद्दीन और सुरेंद्र कुमार ने Economic and Political Weekly पत्रिका में एक लेख लिखा ‘Does untouchability exist among Muslims?’
इसमें उन्होंने अक्टूबर 2014 से अप्रैल 2015 के बीच उत्तर प्रदेश के 14 ज़िलों के 7,000 से ज़्यादा घरों का सर्वेक्षण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि मुस्लिम समाज में छुआछूत मौजूद है। उन्होंने पाया कि ज़्यादातर मुसलमान एक ही मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं लेकिन कुछ जगहों पर ‘दलित मुसलमानों’ को महसूस होता है कि मुख्य मस्जिद में उनसे भेदभाव होता है.कम से कम एक तिहाई लोगों ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के कब्रिस्तानों में अपने मुर्दे नहीं दफ़नाने दिए जाते.
वह या तो उन्हें अलग जगह दफ़नाते हैं या फिर मुख्य कब्रिस्तान के एक कोने में. ‘दलित मुसलमानों’ से जब उच्च जाति के हिंदू और मुसलमानों के घरों के अंदर अपने अनुभव साझा करने को कहा गया तो करीब 13 फ़ीसदी ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के मुसलमानों के घरों में अलग बर्तनों में खाना/पानी दिया गया. (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
उच्च जाति के हिंदू घरों की तुलना में यह अनुपात करीब 46 फ़ीसदी है. जिन गैर-दलित मुसलमानों से बात की गई उनमें से करीब 27 फ़ीसदी की आबादी में कोई ‘दलित मुसलमान’ परिवार नहीं रहता था. ‘दलित मुसलमानों’ के एक बड़े हिस्से का कहना है कि उन्हें गैर-दलितों की ओर से शादियों की दावत में निमंत्रण नहीं मिलता. यह संभवतः उनके सामाजिक रूप से अलग-थलग रखे जाने के इतिहास की वजह से है।
इसी तरह मुस्लिम दलित जाति विशेषत: हलालखोर समाज सदियों से सामाजिक भेदभाव और उत्पीड़न झेलता आया है पर उनके अनुभव को सवर्ण-बहुजन सभी ने ख़ारिज कर दिया । दलित मुस्लिम हलालखोर परिषद मऊ नाथ भंजन (UP) के ज़िला अध्यक्ष नसीम बिलाली कहते हैं कि ‘ हमारे पुरखे जब मस्जिद में जाते थे तो उनको पीछे की सब में खड़ा कर दिया जाता था।
वह घर से ही वजू करके जाते थे (मस्जिद के अंदर वजू करना मना था) गांव के बड़े लोग हमारे घर में पानी पीना पसंद नहीं करते थे। मेरे द्वारा प्रश्न करने पर कि यह तो पुरानी घटना है क्या आज भी आपके साथ भेदभाव होता है तो उन्होंने मुझसे ही वापिस एक सवाल किया, आपने यादव जूस कॉर्नर, चौहान जूस कॉर्नर आदि सुना होगा पर क्या आपने हलालखोर जूस कॉर्नर कभी सुना है?
अगर हम अपनी जाति का नाम लिखकर जूस कॉर्नर खोल दें तो कोई भी जूस पीने नहीं आएगा। नसीमबिलाली एक घटना के बारे में बताते हैं। उनके एक मित्र सलाउद्दीन साहब जो रेलवे के कर्मचारी थे रिटायर होने के बाद उन्होंने एक होटल खोला, सलाउद्दीन साहब तबलीगी जमात से जुड़े बहुत धार्मिक व्यक्ति थे। (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
जब उन्होंने होटल खोला तो लोग दूर से ही उंगली का इशारा कर के होटल को दिखाकर बोलते थे कि वह हलालखोर का होटल है। नतीजा यह हुआ कि उनको होटल बंद करना पड़ा क्योंकि कोई भी उनके होटल में खाना खाने नहीं आता था।
जोएल ली(मानव विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर) अपने लेख ‘Who is the true Halalkhor?’ में लिखते हैं ‘जमींदारों द्वारा गढ़ी गई कहानी मे बताया जाता था कि हालाखोर महिलाओं के हाथ और कलाई, जो इस जीवन में उनके मल साफ़ करने से गंदी हो जाती थी, वह कल मरने के बाद जन्नत में सोने की तरह चमकेगी— यह कहानी एक मशहूर हदीस पर आधारित है, जिसमें पैग़म्बर मोहम्मद् (स० अ० व०) ने कहा है कि ‘मुसलमानों द्वारा वजू [अर्थात, हाथ, कलाई, पैर, चेहरा] किए जाने वाले शरीर के अंग सुबह रोज़े कयामत के दिन चमकेंगे’. इस प्रकार हलालखोर के उत्पीड़न को धार्मिक वैधता दे दी गई. (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
मैंने भी अपने साक्षात्कार मे नसीम बिलाली और अंसार साहब से इस कहानी की पुष्टि की नसीम बिलाली बताते हैं कि जब उनके घर की औरतें जमींदारों के घर उनका पैखाना उठाने जाती थीं, तो इस डर से कि कहीं गंदा काम समझकर यह औरतें उनकी खड्डी में आना ना छोड़ दें।
जमींदार की औरतें कहती थीं कि ‘ए बहनी कल कयामत के दिन जौंन हथवा से त पैखाना उठावती, ऊ हथवा क अल्लाह ताला सोने का कर दीयन’। नकाब और बुर्के के ऊपर अशराफ राजनीति बहुत सरगर्म रहती है पर ये हलालखोर औरते नकाब लगा कर कैसे अशराफ/ सैयद साहब के घर का मौला उठाती तो जो प्रजा कौमें थी उनकी औरतों पर नकाब/बुर्का लगवाने का वैसा कोई ज़ोर नहीं था जैसा अशराफ के घर की औरतों के लिए था।
क्या हलालखोर जाति की शादी मुसलमानों की दूसरी जाति में होती है? नसीमबीलाली कहते हैं कि ‘पढ़ने लिखने के बाद हलालखोर जाति के युवा अपनी अपनी जाति छुपा लेते हैं पर शादी करते वक्त वह अपनी ही जाति में आते हैं। अगर वह दूसरी जाति में शादी कर लें और बाद में पता चल जाए कि वह किस जाति से आए हैं तो पूरी जिंदगी उनको ताना मिलता रहेगा और उनका जीना मुश्किल हो जाएगा।’
वह कहते हैं कि इस्लाम में तो मुसलमान मुसलमान बराबर हैं पर सामाजिक तौर पर बराबर नहीं है। आज़मगढ़ के एक दूसरे हलालखोर साथी भूतपूर्व रेलवे कर्मचारी अंसार साहब कहते हैं कि हलालखोर समाज में शिक्षा का स्तर भी बहुत कम है। अंसार साहब कहते हैं कि ‘अगर हमारी जाति पढ़ लिख लेती इनकी इन अशराफों की गुलामी कैसे करती? इसलिए जानबूझकर हमारी जाति को शिक्षा से दूर रखा गया है। (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
सर सैयद अहमद खान भी पसमांदा जातियों को आधुनिक शिक्षा देने के पक्ष में नहीं थे। जब हमको शिक्षा से दूर कर दिया गया तो हम कुरान,हदीस, इतिहास, भूगोल क्या जाने? जब शिक्षा नहीं थी तो अपनी बात कहने वाला भी कोई पैदा नहीं हुआ। अंसार साहब कहते हैं कि जब अशराफउलेमा हमारा मुर्गा खा कर हमारी बस्ती में तकरीर करते थे तब कहते थे कि हर मुसलमान मर्द औरत के लिए शिक्षा अनिवार्य है। हर मुसलमान आपस में बराबर है और सबसे ऊँचा मुसलमान वह है जो अल्लाह से सबसे ज़्यादा डरे पर मिम्बर से उतर कर वही भेदभाव करने लगते हैं।
समाजशास्त्री अरशद आलम अपने लेख ‘New Directions in Indian Muslim Politics the Agenda of All India Pasmanda Muslim Mahaz में लिखा है, “ऐसे उदाहरण हैं जहां उन्हें [हलालखोर समुदाय के सदस्यों] को मस्जिदों में प्रार्थना करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया गया है… “ अरशद आलम को उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ में एक मस्जिद के इमाम तौफीक अहमद एक किस्सा सुनाते हैं.
अहमद, जो हलालखोर समुदाय से हैं, शिकायत करते हैं कि उनकी मस्जिद में हमेशा धन की कमी रहती है और वे मरम्मत और रखरखाव नहीं कर सकते हैं, जबकि कुलीन अशरफों की मस्जिदों को ऐसे मुद्दों का सामना नहीं करना पड़ता है। अहमद इसे (धन की कमी को) अपनी सामाजिक स्थिति के परिणाम के रूप में देखते हैं अर्थात एक छोटी जाति के इमाम (छोटी जाति की मस्जिद) होने के नाते उनको उसे तरह धन उपलब्ध नहीं हो पता जिस तरह एक बड़ी जाति के इमाम को उपलब्ध हो पाता है।
राजनीतिक प्रतिनिधि के सवाल पर अंसार साहब कहते हैं कि ‘जब कोई पसमांदा चुनाव लड़ता है तो उसे जाति के आधार पर देखा जाता है और जब अशराफ चुनाव लड़ता है तो उसे कौम से जोड़कर बताया जाता है। मतलब मैं हलालखोर हूं तो मैं मुसलमान नहीं हूं और वह सैयद साहब हैं तो वह मुसलमान हैं। (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
मुस्लिम जनता को बताया जाता है कि क्यों तुम दर्ज़ी/हलालखोर/नट/ पमारिया आदि को वोट दे रहे हो उनका न कोई बैकग्राउंड है न ही कोई तालीम है इनके पास। यह लोग विधानसभा/संसद में बैठ कर क्या करेंगे? चुनाव में नारा लगाया जाता है – अल्लाह मिया की मर्जी चुनाव लड़े दर्जी।’ अंसार साहब बताते हैं कि एक पीढ़ी पहले तक मस्जिद में उनकी जाति को वज़ू नहीं करने दिया जाता था, वह अपने घर से वज़ू कर के जाते थे या अपना लोटा मस्जिद साथ ले जाते थे।
दलित मुस्लिमों का आरक्षण
अभी हाल में केंद्र सरकार ने के जी बालाकृष्ण की अध्यक्षता में एक पैनल बनाने की घोषणा की है। यह पैनल इस बात की पड़ताल करेगा कि क्या मुस्लिम दलित जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाए या नही ? ज्ञात रहे कि मुस्लिम दलित जातियों को 10 अगस्त 1950 को तत्कालीन नेहरू सरकार ने अध्यादेश 1950 के जरिये धार्मिक प्रतिबंध लगाकर हिन्दुओं को छोड़कर अन्य धर्म के दलितों को अनुसूचित जाति से बाहर कर दिया।
सिखों को 1956 में और बौद्धों को 1990 में दोबारा इस श्रेणी में शामिल किया गया। इस अध्यादेश के खिलाफ पिछले 18 सालों से सर्वोच्च न्यायालय में दलित ईसाइयों दलित मुसलमानों को शेड्यूल कास्ट का दर्जा देने की मांग से संबंधित एक सिविल रिट याचिका लंबित है। दलित मुस्लिम और ईसाई आज भी अनुसूचित जाति के आरक्षण से बाहर हैं। इस दौरान कई सेक्युलर पार्टियां आई और चली गई पर किसी ने मुस्लिम दलितों का नाम लेना भी गवांरानही किया। (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
यह वही पार्टियां हैं जिनको पसमांदा समाज आज भी वोट करता है, इन सेक्युलर पार्टियों को हमारा वोट चाहिए पर वह हमें कोई अधिकार देने के पक्ष में नही हैं। यह पार्टियां ‘संविधान बचाव’ का नारा देती हैं अनुच्छेद 341 पर लगे धार्मिक प्रतिबन्ध पर अपनी चुप्पी बांध लेती हैं, ऐसे बचेगा संविधान ? संविधान बनने के बाद 1950 में उसके मौलिक अधिकार अनुच्छेद 14,15,16 और 25 की हत्या राष्ट्रपति अध्यादेश द्वारा कर दी गई और किसी भी सेक्युलर पार्टी को इससे कोई फर्क नही पड़ा।
कुछ बहुजन साथी यह कहते मिल जाते हैं कि इस्लाम धर्म में कोई जाति यह छुआछूत की मान्यता मौजूद नहीं है इसलिए मुस्लिम दलितों को दलित आरक्षण के दायरे से बाहर रखना ज़रूरी है। क्या उन साथियों से यह सवाल नहीं किया जा सकता कि बौद्ध धर्म और सिख धर्म भी सामाजिक समानता की बात करता है, इन धर्मो मे भी कोई जाति यह छुआछूत की मान्यता मौजूद नहीं है.
इसी समानता की लालच में दलितों ने इस्लाम,बौद्ध और सिख धर्म स्वीकार किया तो किस आधार पर बौद्ध और सिख दलितों को आरक्षण का लाभ मिल रहा है ? मुस्लिम अशराफ नेतृत्व लगातार यह कोशिश कर रहा है कि आरक्षण के मुद्दे को धर्म परिवर्तन से जोड़ दिया जाए इस तरह यह दोबारा से जाति के मुद्दे को दबा कर धर्म की राजनीति को मज़बूत कर पाएंगे।
पसमांदा आंदोलन का मानना है कि दलित मुसलमानों को आरक्षण दिलाने के लिए अगर धर्मपरिवर्तन पर क़ानूनी प्रतिबंध लगाने की बात आये तो हम ऐसे प्रतिबंध का समर्थन करेंगे। यह बात स्पष्ट करना आवश्यक है कि हम सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं धर्म परिवर्तन की नहीं।
हम यह जानते हैं कि पृथक निर्वाचन मंडल को रद्द करने की मांग पर गांधी जी आमरण अनशन पर बैठ गए थे। गांधी और बाबा साहब के बीच एक समझौता हुआ था जिसे ‘पूनापैक्ट’ के नाम से जाना जाता है। इसी समझौते के तहत आरक्षण का प्रवधान आया था। (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
इसलिए कुछ दलित साथियों का कहना है कि मुसलमान तो पृथक निर्वाचन मंडल का लाभ उठा रहे थे और बाद में वह पाकिस्तान के रूप में अपना हिस्सा ले कर चले गए अतः उन्हें हिन्दू समाज के भीतर (पूनापैक्ट) हुए इस अनुचित जाति के समझौते में भागीदार बनाना कहीं से भी उचित नही है।
ऐसा कहने वाले दलित साथी कांग्रेस को तो ब्राह्मणवादी संगठन के रूप में चित्रित करते हैं पर मुस्लिम लीग को अशराफ़ संगठन नही बोलना चाहते। वह भी पूरे मुसलमानों को एक ही वर्ग मानते हैं और आज भी वह पसमांदा आवाज़ को सुनना नही चाहते। इतिहास गवाह है कि पसमांदा आंदोलन ने न पाकिस्तान का समर्थन किया था न मुस्लिम लीग का समर्थन किया था।
यह वह समाज है जो विभाजन के वक़्त भी भारत में रहा। पसमांदा मुसलमान की उस वक़्त कांग्रेस , मुस्लिम लीग और बाबा साहब की तरह कोई पार्टी नही थी। यह वजह रही कि पसमांदा मुसलमानों के विरोध को उनकी मांग को उनके दर्द को किसी ने नही सुना।
आज़ादी के बाद भी इन्ही अशराफ नेताओं ने अपने मुद्दों को पसमांदा समाज के मुद्दे के रूप में पेश कर के अपना वर्चस्व बनाए रखा .आज़ादी के 75 साल बाद आज हमारी बात अशराफ़ नेतृत्व में खो जाती है तो उस वक़्त के हाल का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
अंसारअहमद कहते हैं कि आज़ादी के बाद भी यही अशराफ थे जो मुसलमानों में जाति के अस्तित्व को नकार दिया करते थे जिसकी वजह से मुस्लिम दलितों को दलित आरक्षण बाहर कर दिया गया। अब रही बात OBC आरक्षण की तो मंडल आयोग ने कहा उन लोगों को आरक्षण का लाभ मिलेगा जिनका नाम केंद्र और राज्य सूची में पाए जाएंगे। (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
अब OBC लिस्ट में कई जातियों के नाम नहीं है जैसे जागा जाति, भाट, गौरिया, पखिया, पवरिया, मुस्लिम तेली, मुस्लिम कोरी आदि इनको आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है। काका कालेकर ने मुस्लिम स्वीपर लिखा पर स्वीपर तो कोई जाति नहीं है जाति है हलालखोर, मेहतर इसलिए हमें भी आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा था।
1994 में राम सूरत सिंह की अदालत ने OBC लिस्ट में स्वीपर शब्द को हटाया नहीं बल्कि संशोधन करके उसके साथ हलालखोर शब्द जोड़ दिया जिसके बाद से हमें भी OBC आरक्षण का लाभ मिल रहा है। नसीमबिलाली साहब कहते हैं कि अगर मुसलमान EBC और OBC तथा सत् में आता है तो SC आरक्षण में क्यों नहीं आ सकता? जबकि वही पेशा और काम हम भी करते हैं जो हिंदू दलित करते हैं।
मैला हम भी उठाते थे पर जब मैला उठाने पर प्रतिबंध लगा तो हमारे लोग तो बेरोज़गार हो गए या दिहाड़ी मज़दूर बन गए पर हिंदू दलित आरक्षण वजह से नगरपालिका में सरकारी मुलाज़ीम हो गए। इस ओर कभी हमारी मुस्लिम राजनीति जो अशराफ हितों की राजनीति करती है ने ध्यान नहीं दिया।
यह है हमारी अशराफ राजनीति की हकीकत जो जज़्बाती मुद्दों पर सड़कों को भर देती है पर सामाजिक न्याय पर खामोश हो जाती है। राहुल गाँधी का बयान ‘भारत में मुस्लिमों के साथ आज जो हो रहा है वो 80 के दशक में यूपी के दलितों के साथ हुआ था’ भी पसमांदा आवाज़ों को दबाने की एक चाल है। अगर सारे मुसलमान एक जैसे हैं तो आरक्षण की लड़ाई जाति से हट कर धर्म पर आ जाएगी। (Muslim Halalkhor Caste Exclusion)
अंसार साहब कहते हैं अगर सारे मुसलमान एक समान पिछड़े हैं तो मुझे बताएं कौन सैयद साहब पमारिया की तरह नाचकर भीख मांग सकता हैं ? या हलालखोर की तरह नाली साफ कर सकता है ? वह भूख से मर जाएंगे पर यह काम ना करेंगे। सारे मुसलमानों को आरक्षण देने की बात दरअसल दलित मुसलमानों से आरक्षण छीन लेने की चाल है ताकि दलित मुसलमान सम्मानित जगहों जैसे विधानसभा और संसद में उनके बराबर आकर न बैठ सकें।
इस बात को समझना और समझाना ज़रूरी है कि मुस्लिम समाज कोई एकरूप समाज नहीं है इसमें भी बहुसंख्यक समाज की तरह ज़ात-पात, भेदभाव, छुआछुत मौजूद है। स्वच्छ भारत के अभियान को हलालखोर, भंगी जैसी जातियों ने सफल बनाया है, पर जब तक इन लोगों की जिन्दगी नहीं सुधरती, एक राष्ट्र के तौर पर हम असफल ही व्यक्त होंगे।
इन सामाजिक बहिष्कृत जातियों के साथ सामाजिक न्याय के एक साधन के रूप में आरक्षण राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया है। जिसके माध्यम से हजारों हजार वर्षों से जीवन के अनेकों आयामों से बहिष्कृत, शोषित, अनादरित एवं वंचित जातियों को सत्ता, शिक्षा, उत्पादन, न्याय, संचार व्यवसाय, स्वयंसेवी संगठनों आदि में उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व (भागेदारी) को सुनिश्चित करना आवश्यक है।
1: डॉक्टर अयूबराईन, भारत के दलित मुसलमान; खंड 1-2, प्रकाशन : खंड 1 हेरिटेज प्रकाशन, खंड-2 आखर प्रकाशन
2: अली अनवर, संपूर्ण दलित आंदोलन, राजकमल प्रकाशन, 2023
3:Joel Lee, Who is the true Halalkhor? Genealogy and ethics in dalit Muslim oral traditions ,SAGE, Contributions to Indian Sociology 52, 1 (2018): 1–2
4: Arshad Alam, New Directions in Indian Muslim Politics the Agenda of All India Pasmanda Muslim Mahaz, SAGE, Contemporary Perspectives Vol 1. No. 2 July-December 2007, 130-143
5:Prashant K Trivedi, Srinivas Goli, Fahimuddin, Surinder Kumar, Does Untouchability Exist among Muslims? Evidence from Uttar Pradesh, Economic & Political Weekly, april 9, 2016 vol lI no 15
6: मसऊद आलम फ़लाही, हिन्दुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान, आइडियल फाउंडेशन, मुम्बई, संस्करण 2009
7: दलित मुस्लिम हलालखोर समाज के ज़िला अध्यक्ष श्री नसीमबिलाली का साक्षात्कार
8: श्री अंसारअहमद (हलालखोर) का साक्षात्कार
9: Sheikh Community: The Ugly Reality of Caste Discrimination in Kashmir | Abid Salaam reports