बलिदान की मिसाल मास्टर सूर्यसेन: न माफी मांगी, न पेंशन ली
”मृत्यु मेरा द्वार खटखटा रही है। मेरा मन अनंत की ओर बह रहा है। मेरे लिए यह वो पल है, जब मैं मृत्यु को अपने परम मित्र के रूप में अंगीकार करूं। इस सौभाग्यशील, पवित्र और निर्णायक पल में मैं तुम सबके लिए क्या छोड़ कर जा रहा हूं? सिर्फ एक चीज- मेरा स्वप्न, मेरा सुनहरा स्वप्न, स्वतंत्र भारत का स्वप्न। प्रिय मित्रों, आगे बढ़ो और कभी अपने कदम पीछे मत खींचना। उठो और कभी निराश मत होना। सफलता अवश्य मिलेगी। (“Master Suryasen example sacrifice)
मास्टर सूर्य सेन ने बलिदान से पहले 11 जनवरी को अपने एक मित्र को ये अंतिम पत्र लिखा था। अंतिम समय में भी उनकी आंखें स्वर्णिम भविष्य का स्वप्न देख रही थीं।
12 जनवरी 1934 को फांसी देकर साम्राज्यवादी सरकार ने अपने बर्बर शासन की मिसाल कायम की। फांसी से पहले उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गई। निर्दयतापूर्वक हथौड़े से उनके दांत तोड़ दिए गए, नाखून खींच लिए गए, हाथ-पैर जोड़-तोड़ दिए गए और जब वह बेहोश हो गए तो उन्हें अचेतावस्था में ही खींचकर फांसी के तख्ते तक लाया गया। (“Master Suryasen example sacrifice)
क्रूरता और अपमान की पराकाष्ठा यह थी की उनकी मृत देह को भी उनके परिजनों को नहीं सौंपा गया और उसे लोहे के बक्से में बंद करके बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया गया। लेकिन मास्टर सूर्यसेन का जिक्र अब लोगों की जुबान पर नहीं, ‘माफी मांगने वाले वीरों’ की गाथाएं बुनकर मर्सिया पढ़ा जा रहा है। बांग्लादेश और भारत की सरकारों ने उनके नाम से कुछ पार्क, स्टेशन आदि का नाम रखकर उनको भुलाने में ही बेहतरी समझी।
अशोक मुखोपाध्याय लिखते हैं, मास्टरदा सूर्य सेन कई मायनों में, ब्रिटिश काल में बंगाल में संगठित क्रांतिकारी समूहों के सामान्य तौर-तरीकों के बीच अपवाद थे। उनका क्रांतिकारी समूह देवी काली के मंदिर में शपथ लेने की रस्म को निभाने की परंपरा पर नहीं चला। हालांकि, वह भगत सिंह की तरह पूरी तरह से नास्तिक नहीं थे, फिर भी वे धार्मिक अनुष्ठानों को राजनीतिक लक्ष्य के घालमेल से नाइत्तफाकी रखते थे। (“Master Suryasen example sacrifice)
अपने भाषणों और लेखों में उन्होंने देश को माता और मातृभूमि के रूप में संदर्भित किया, लेकिन मातृदेवी के रूप में नहीं। वह भारतीय राष्ट्रीय राजनीति में पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन में महिलाओं की भर्ती की और उन्हें पुरुषों की तरह ही जिम्मेदारियां सौंपीं। इससे पहले की बंगाल के क्रांतिकारियों की परंपरा महिलाओं को “मां” के रूप में मानने और ब्रह्मचर्य निभाने वाली रही, जिससे महिलाओं की उनके ग्रुप में नो एंट्री रही।
मास्टरदा ने इस परंपरा को तोड़ा भी और उनके समूह पर ऐसा कोई धब्बा नहीं लगा, जैसा पहले सोचा जाता था। उन्होंने दो प्रतिभाशाली क्रांतिकारियों – प्रीतिलता वाद्दार और कल्पना दत्ता को बढ़ावा दिया – जो बेमिसाल क्रांतिकारी वीरांगनाएं रहीं। (“Master Suryasen example sacrifice)
वह जिला कांग्रेस कमेटी के सचिव थे। एक दुर्लभ व्यक्ति, जिन्होंने विभिन्न स्वतंत्रता-प्रेमी कार्यकर्ता समूहों के बीच एकता की जरूरत को समझा, मतभेदों के साथ! उनके पास बहुस्तरीय भागीदारी के साथ एक संगठनात्मक संरचना थी। कोई “हां-नहीं” जैसा असाइनमेंट नहीं था। हर शख्स अपनी भागीदारी समर्पण की भूमिका के साथ अपने लिए जिम्मेदारी ले सकता था।
हर सदस्य केवल उतना ही जानता था जितना जरूरी था। यही वजह रही कि उनके समूह को चटगांव में आंतरिक विश्वासघात के बावजूद कम से कम नुकसान उठाना पड़ा। अहम तथ्य ये भी है कि मुस्लिम बहुल जिले में मास्टरदा तीन साल तक पुलिस गिरफ्त में नहीं आए और उनको आश्रय मिला, किसी ने कोई गद्दारी नहीं की, फरार होने की सूचना उसके एक रिश्तेदार ने पुलिस को दी थी! (“Master Suryasen example sacrifice)
सूर्यसेन का जन्म 22 मार्च 1894 में कलकत्ता के चटगांव के नाओपारा में हुआ था। इनके पिता रामनिरंजन एक अध्यापक थे। 1916 में इण्टरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान अपने एक अध्यापक के क्रांतिकारी विचारों से प्रेरित होकर सूर्यसेन बंगाल के एक प्रमुख क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति मेें शामिल हो गये। उस समय इनकी आयु 22 वर्ष थी। बाद में सूर्यसेन बीए की पढ़ाई हेतु बहरामपुर चले गये। यहां से एक अन्य क्रांतिकारी संगठन युगान्तर के संपर्क में आये।
उस समय समूचा देश ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के बूूटों तले कुचला जा रहा था। युवा जगत में इसे लेकर काफी हलचल थी। सूर्यसेन का युवा मन भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ नफरत से भर गया। 1918 में अपने गांव चटगांव वापस आकर सूर्यसेन युवाओं को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एकजुट करने में लग गये। इन्हीं प्रयासों के दौरान सूर्यसेन नन्दन कानन में सरकारी विद्यालय के अध्यापक नियुक्त हो गये। यहीं से उन्हें जनता व उनके विद्यार्थियों ने नया नाम ‘मास्टर दा’ से संबोधित करना शुरू किया। (“Master Suryasen example sacrifice)
सन 1918 में ही चटगांव में एक क्रांतिकारी दल का गठन किया गया जिसकी केन्द्रीय कमेटी में पांच सदस्य सूर्यसेन(मास्टर दा), नेशनल हाईस्कूल के सीनियर ग्रेजुएट अनुरूप सेन, बुडुल हाईस्कूल के प्रधान शिक्षक नगेन सेन(जुलू सेन), बंगाल रेजिमेन्ट के सूबेदार अंबिका चक्रवर्ती, चारु विकास दत्त थे। इस कमेटी के अधीन ऐसे ही छः अन्य लोग भी प्रथम पंक्ति के कार्यकर्ता थे।
सूर्यसेन निरंतर अपने विद्यार्थियों-युवाओं में ब्रिटिश शोषण के खिलाफ तथा अपने देश की स्थिति पर बातचीत करते। इससे समूचे चटगांव के नौजवान विद्यार्थी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रोश से भर गये। यही हाल समूचे देश में था। चूंकि असहयोग असफल हो चुका था तथा क्रांतिकारी विचारधारा अपने यौवन पर थी। इस कारण मास्टर दा व उनके साथियों ने सशस्त्र संघर्ष का रास्ता चुना। 1919-23 के दौरान मास्टर दा के इस क्रांतिकारी दल को अब हथियारों के लिए धन की आवश्यकता थी। (“Master Suryasen example sacrifice)
चटगांव के क्रांतिकारियों ने एक मीटिंग कर यह तय किया कि किसी परिवार पर डाका डालने के बजाय रेलवे के खजाने को लूट लिया जाय। इसके लिए 18 सितंबर 1923 का दिन चुना गया। योजना बनायी गयी जिसमें निर्मल सेन, खोखा, राजेन सेन, अवनी भट्टाचार्य(उपेन दा) और अनन्त सिंह को दो दलों में बंटकर रेलवे की लूट को अंजाम देना था।
18 सितंबर की सुबह लगभग 9 बजकर 45 मिनट पर ये लोग दो हिस्सों में बंटकर गाडी का इंतजार करने लगे। लगभग 10 बजे एक घोड़ा गाड़ी पहाड़ी ढलान वाली सड़क पर आती दिखाई दी। यही वह गाड़ी थी जिसे लूटा जाना था। दो साथी रिवाल्वर तानकर सड़क के बीचों बीच खड़े हो गये। गाड़ी के कोचवान ने गाड़ी और तेज करनी चाही परंतु किसी ने घोड़ों की लगाम खींचकर घोड़ों को रुका दिया। (“Master Suryasen example sacrifice)
गाड़ी मंद पड़ गयी। दो अन्य साथी गाड़ी के कोचवान पर रिवाल्वर ताने खड़े हो गये। सभी सैनिकों को नीचे उतारकर सारे साथी गाड़ी पर चढ़कर तेजी से गाड़ी दौड़ाने लगे। रेलवे का खजाना लूटा जा चुका था। निर्धारित पड़ाव पर पहुंचकर रुपये गिने गये। कुल सत्रह हजार रुपये। हांलाकि मास्टर दा इस लूट काण्ड में सीधे शामिल नहीं थे परंतु उनकी प्रेरणा के बिना यह संभव भी नहीं हो पाता। पुलिस चैकन्नी हो चुकी थी। सभी तरफ लुटेरों की तलाश की जा रही थी। इसे देखते हुए यह तय किया गया कि अंबिका चक्रवर्ती हथियार खरीदने कलकत्ता जायेंगे परंतु तब तक रुपयों को कहीं छिपा दिया जाय।
लूट की घटना के 10 दिन बाद सुबह आठ बजे मास्टर दा व अंबिका दा सुलकबहार भवन में अन्य साथियों से मिले तय किया गया कि कुछ समय के लिए हेड क्वार्टर को बंद कर दिये जायें। सभी हथियार कहीं छिपा दिये जायें। मीटिंग के दौरान ही पांचालाइस थाने के इंचार्ज ने पुलिस बल के साथ मकान को घेर लिया। मास्टर दा व अंबिका दा को गिरफ्तार कर लिया गया। अन्य साथी हथियारों के साथ किसी प्रकार बच निकलने में सफल हो गये और कलकत्ता पहुंच गये।(“Master Suryasen example sacrifice)
उसी सप्ताह एक अन्य साथी अनन्त सिंह को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। तीनों पर रेलवे डकैती का मुकदमा चलाया गया परंतु किसी गवाह के न होने के कारण दोष साबित न हो सका और तीनों ही साथी रिहा हो गये। मास्टर दा पुनः चटगांव मेें नौजवान युवकों को प्रेरित कर सशस्त्र क्रांति दल के संगठन में जुट गये। मई 1929 मेें संगठन की केन्द्रीय काउंसिल की बैठक हुयी जिसमें यह तय किया गया कि भविष्य में यह संगठन चटगांव के इण्डियन रिपब्लिकन आर्मी के नाम से जाना जायेगा।
चटगांव की आर्मी की शाखा ने सर्वसम्मति से मास्टर दा को अपना अध्यक्ष चुना। यह बैठक लगभग पांच घंटे चली। इसमें तय किया गया कि 18 अप्रैल 1930 के दिन शहर पर कब्जा कर लिया जाय। चूंकि यह दिन आयरलैण्ड के स्वतंत्रता संग्राम में ईस्टर विद्रोह का भी दिन था (“Master Suryasen example sacrifice)
योजना को अमली जामा पहनाने के लिए हथियार जरूरी थे। इस हेतु हथियार खरीदे गये। जिसमें एक मुस्लिम जहाजी याकूब की मदद ली गयी। चटगांव में दो इलाके प्रमुखतः थे। पहला- असम बंगाल रेलवे बटालियन (एबीआरबी) हेडक्वार्टर तथा दूसरा- पुलिस लाइन हेडक्वार्टर। इसके अलावा शहर में इम्पीरियल बैंक, जेल, कोतवाली तथा एक बन्दूक की दुकान भी थी। इन सभी पर एक साथ कब्जा किया जाना था।
हमले की तैयारी का एक खास काम बम बनाना अभी बाकी था। खाली खोलों में बारूद भरा जा रहा था। इस दौरान विस्फोट हो गया जिसमें तारकेश्वर, अर्दधेन्दु बुरी तरह घायल हो गये। इससे पुलिस की तत्परता बढ़ गयी। पुलिस सघन तलाशियां लेने लगी। हमले में मात्र दो सप्ताह ही शेष बचे थे। इस लिहाज से कोतवाली, पुलिस चैकी, डीआईबी, इंस्पेक्टर व सब इंस्पेक्टर के घरों पर नजर रखने हेतु कुछ सदस्य कार्यकर्ताओं की तैनाती भी की गयी। (“Master Suryasen example sacrifice)
अब वह दिन आ चुका था जिसका सभी क्रांतिकारियों को इंतजार था। 18 अप्रैल 1930 की रात आठ बजे सभी युवा क्रांतिकारियों ने सैनिक भेष में दो दल बनाये। एक गणेश घोष तथा दूसरा लोकनाथ वट के नेतृत्व में। दोनों दलों को क्रमशः पुलिस शस्त्रागार तथा चटगांव के सहायक सैनिक शस्त्रागार पर कब्जा करना था।
भारत को साम्राज्यवादी दासता से मुक्त कराने की चाहत लिए युवा क्रांतिकारियों ने रेलवे सम्पर्क मार्ग अवरुद्ध कर दिये। साथ ही टेलीफोन व टेलीग्राफ की लाइनों को भी ध्वस्त कर दिया गया। दोनों टोलियों ने एक-एक कर दोनों शस्त्रागारों पर कब्जा कर लिया। बैंक, बन्दूकों की दुकान, कोतवाली सभी को क्रांतिकारियों ने अपने कब्जे में ले लिया। इस अचानक हुई कार्यवाही ने पुलिस को भौंचक्का सा कर दिया था। (“Master Suryasen example sacrifice)
चटगांव इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के कब्जे में था। अंग्रेजी शासन के चाकर दुम दबाकर भाग खड़े हुए। कब्जे के बाद क्रांतिकारियों का दल पुलिस शस्त्रागार पर एकत्र हुआ जहां मास्टर दा ने अपनी सेना की सलामी ली, राष्ट्रध्वज फहराया तथा अस्थाई सरकार की घोषणा कर चटगांव से अंग्रेजी शासन के खात्मे की भी घोषणा कर दी गयी।
(इनपुट- परचम पत्रिका और इंटरनेट से साभार)