कहानी एक स्थूल चीज है जबकि भाव अक्सर सूक्ष्म होते जो स्थूल कहानी की सपाट और सरल लाइनों के बीच पाये जाते है. मुख्यधारा के सिनेमा से इतर थ्री ऑफ़ अस सीधी, सपाट और सरल कहानी नहीं बल्कि महीन और मुग्ध करने वाले भावों को पकड़ती हुई नजर आती है. (Three of Us Movie)
थ्री ऑफ़ अस की मुख्य किरदार शैलजा देसाई को डिमेंशिया नाम की एक बीमारी है जिसमे रोगी धीरे-धीरे सब कुछ भूलने लगता है. लेकिन अविनाश अरुण धावारे की थ्री ऑफ़ अस का पूरा कथानक रोग-हारी- बीमारी के प्रसंग से शुरू होने के बावजूद इस पूरी फिल्म में हास्पिटल- दवा- डॉक्टर का जिक्र आपको सीधे तौर पर कही सुनाई नहीं पड़ेगा.
थ्री ऑफ़ अस का पहला सीन खुलते ही शैलजा देसाई के किरदार का भावहीन चेहरा देखकर ये स्पष्ट हो जाता है कि उसकी मनःस्थिति ठीक नहीं है. डिमेंशिया का जिक्र आते ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि शैलजा देसाई के चेहरे की घोर भावहीनता उसकी याद्दाश्त के धीरे-धीरे मिटने की परिचायक है.
लेकिन किसी रोगी को हॉस्पिटल ले जाने की आधुनिक रवायत के उलट अविनाश अपनी फिल्म की कहानी में शैलजा देसाई को मुंबई के पास स्थित खूबसूरत कोंकण में ले जाते है जहाँ पर दीपांकर देसाई से शादी से पहले शैलजा, शैलजा पाटंकर हुआ करती थी. (Three of Us Movie)
थ्री ऑफ़ अस के संवाद वरुण ग्रोवर और शोएब जुल्फी नजीर ने लिखे है लेकिन ये फिल्म बोलती कम और बहती ज्यादा है. दर्शक के रूप में ये आपकी जिम्मेदारी है कि इस बहाव से उपजे अलंकार को आप ठीक से समेट पाये.
आप जैसे ही कहानी के सहारे थ्री ऑफ़ अस का अपनी सुविधा के अनुसार अनुवाद करने की कोशिश करते है परदे पर उकरा अगला प्राकृतिक सौंदर्य का शांति से भरा हुआ द्रश्य आपके सांसारिक अनुवाद को खारिज कर देता है और फिल्म एक बार फिर आपके हाथ से छूटकर बह निकलती है.
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मसलन कोंकण के वेंगुर्ला शहर में घूमते हुए थ्री ऑफ़ अस के तीनों किरदार बहुत सुंदर मंदिरों में घूमते हुए नजर आते है जिससे ये बोध होता है कि शायद तीनों किरदार बेहद धार्मिक है. लेकिन एक मौके पर पहुंचकर आपको पता चलता कि ना सिर्फ फिल्म के तीनों किरदारों को धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है बल्कि फिल्म की मुख्य किरदार शैलजा, अलग-थलग रहकर टोटका आदि करने वाली एक ऐसी स्त्री के बेहद करीब है जिस प्रकार की स्त्रियों को जादूगरनी या चुड़ैल करार देकर उत्तर भारत में उनकी धर्म के ठेकेदारों के द्वारा हत्या कर दी जाती है.
इसी तर्ज पर थ्री ऑफ़ अस की शुरूआत में हमें लगता है कि ये फिल्म विस्थापन की कहानी है जिसमे कोंकण के प्राकृतिक परिदृश्य से किरदारों को मुंबई की ओर विस्थापित होना पड़ा है. लेकिन कुछ समय बाद समझ आता है कि थ्री ऑफ़ अस विस्थापन नहीं बल्कि पलायन की कहानी है जिसमे किरदार अगर अच्छी आर्थिक संभावनाओं की तलाश में मुंबई जा सकते है तो अपने अंतिम समय में जीवन के ठहराव को महसूस करने के लिये कोंकण वापस आ भी सकते है. (Three of Us Movie)
थ्री ऑफ़ अस में रोजमर्रा के सांसारिक प्रसंगों को जोर- जबरदस्ती ढूँढने की कोशिश हमें इस नतीजे पर बेहद आसानी से पहुंचा सकती है कि थ्री ऑफ़ अस एक ऐसी महिला की कहानी है जो अपने आखिरी दिनों में अपने बचपन के प्रेमी प्रदीप से मिलने कोंकण जाती है.
चूँकि शैलजा पेशे से वकील है, उसका पति दीपांकर इंश्योरेंस बेचता है और प्रदीप भी एक सांसारिक आदमी की ही तरह बैंक में नौकरी करता है ये कहना बेहद आसान हो जाता है कि थ्री ऑफ़ अस भी महज ऐसे लोगों की कहानी है जो साल-दर-साल ढर्रे पर चलने वाली जिंदगी जिये जा रहे है.
लेकिन सूरदास का लिखा और पंडित कुमार गंधर्व के द्वारा गाया गया ‘नैन घट घट तन एक घड़ी’ सुनते ही और थ्री ऑफ़ अस के लंबे-लंबे संवाद विहीन दृश्यों से गुजरते हुए लगता है ये फिल्म प्रेमियों के मिलने की कहानी या फिर नौ से पांच बजे तक ऑफिस में काम करने वाले लोगों की कहानी ना होकर शायद जीवन की उन तरंगों के बारे में है जो हमे बस छूकर निकल जाती है. (Three of Us Movie)
ये तरंगे अक्सर स्थूल ना होकर सूक्ष्म होती है जिनको चिलचिलाती ठंड में आग के पास बैठकर या फिर तेज खट्टी टॉफी को जवान के नीचे दबाकर महसूस किया जा सकता है.
थ्री ऑफ़ अस का साउंड थीम गजब की सिहरन पैदा करता है जैसे कि कुछ अप्रत्याशित घटने वाला है. जैसे कि जिंदगी की रस्सी पर चलते हुए कोई अब गिरा तो तब गिरा. लेकिन कुछ अप्रत्याशित घटित होने के पहले सब कुछ सही हो जाता है ठीक वैसे ही जैसे भावहीन चेहरा लेकर कोंकण आयी शैलजा अपने चेहरे पर भरपूर खुशी लिये मुंबई वापस लौटती है.
(लेखक जेएनयू में समाजशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं और स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं.)